बेनामी क्रय-विक्रय (निषेध) कानून में संशोधन (2016): बेनामी संपत्ति खरीदने वालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
बेनामी क्रय-विक्रय (निषेध) कानून में संशोधन (2016): बेनामी संपत्ति खरीदने वालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? |
बेनामी क्रय-विक्रय क्या है?
बेनामी लेन-देन क्या है? इसमें क्या होता है? फर्ज करिए, मैंने एक मकान खरीदा, लेकिन उसके कागज बनवाए किसी और के नाम से। मालिकाना अधिकार किसी और का, लेकिन property पर कब्जा मेरा। ये हुआ एक उदाहरण मकान की बेनामी खरीद का। सीधे शब्दों मे- बेनामी खरीद संपत्ति का ऐसा सौदा है जिसमे खरीददार प्रॉपर्टी पर खुद कब्जा रखता है, लेकिन कागज किसी और के नाम से बनवाता है। नाम देने वाले व्यक्ति को कानूनी भाषा में बेनामीदार कहा जाता है।
1988 का कानून
1988 में, बेनामी लेन-देन की रोक-थाम के उद्देश्य से बेनामी लेन-देन (निषेध) अधिनियम पारित किया गया। इसमे नौ धाराएं थीं। इनमे से एक में, एक ऐसे प्राधिकार के गठन का प्रस्ताव था, जिसके पास बेनामी खरीद करने वालों को दंडित करने और उनकी संपत्ति जब्त कर लेने का अधिकार होता। लेकिन तब सरकार की मंशा बेनामी खरीददारों को दंडित करने से ज्यादा उनको डराने की थी। ऐसी उम्मीद थी की इस अधिनियम के पारित होने के बाद समाज में एक मजबूत संदेश जाएगा, और ये प्रथा बंद हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने भांप लिया की प्राधिकार के गठन होने तक कानून एक प्रकार से निष्क्रिय है। आने वाले सालों मे बेनामी खरीद करने वालों की संख्या बढ़ती रही।
2016 के संशोधन
2016 में दिवंगत अरुण जेटली ने संसद में बेनामी लेन-देन (निषेध) संशोधन बिल पेश कर दिया। अब सरकार ने इस निष्क्रिय कानून में जान-फूंकने का मन बना लिया था। नवंबर 2016 को संशोधन पास हो गया। इस कानून में 72 नई धाराएँ जोड़ी गईं। दोषियों की खोज और उनकी संपत्ति जब्ती को लेकर ठोस नियम तय किए गए।
लेकिन आखिर इस 1988 के 9 धाराओं वाले कानून में 72 नयीं धाराएँ जोड़ने का क्या औचित्य था? सरकार ने नया कानून ही क्यों नहीं बना लिया? इसके पीछे एक कानूनी पेच है, जो दिवंगत अरुण जेटली ने पार्लियामेंट में समझाया, ‘ये सभी जानते हैं की हमारे संविधान का अनुच्छेद 20 दण्डात्मक कानून पूर्वप्रभाव (retrospectively) लागू करने की अनुमति नहीं देता, लेकिन मौजुदा कानून पूर्वप्रभाव से लागू किए जा सकते हैं। कहने का मतलब, अगर सरकार नया कानून ले आती तो 1988 से 2016 के बीच जितने लोगों ने बेखौफ होकर इस कानून का उल्लंघन किया है, उन सब को बैठे-बिठाए सामूहिक माफी मिल जाती। इतने सारे काले धन को ऐसे ही जाने देना जनहित में नहीं था। ऐसा जेटली जी ने संसद में कहा। जाहीर है की बेनामी के प्रति सरकार का रुख सख्त हो चुका है।
लेकिन क्या इस कानूनी पेच का वाकई हल हो गया? क्या सरकार ऐसे कानून परोक्ष रूप से लागू कर सकती है जिनको सीधे-सीधे लागू करना संविधान में वर्जित है? नए बेनामी कानून के प्रावधान पहले से बेहद सख्त हैं। न केवल दोषियों की संपत्ति जब्त की जाएगी, बल्कि उनके ऊपर दंडात्मक मुकदमा भी चलाया जाएगा।
संशोधित कानून में क्या पेच है?
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार अपने फैसलों मे कहा है की मौजूदा कानूनों मे किए गए संशोधन पूर्वप्रभाव से (retrospectively) लागू किए जा सकते हैं, बशर्ते की ये बदलाव ऐसे न हों जिनसे नागरिकों के मौलिक अधिकार प्रभावित होते हों। हमारे संविधान का अनुच्छेद 20, जो एक मौलिक अधिकार है, ये साफ-साफ कहता है की एक अपराधी को उतनी की सजा दी जा सकती है, जितनी अपराध करने के समय निर्धारित हो। सरकारें पूर्वप्रभाव से कानून में बदलाव लाकर किसी को दंडित नहीं कर सकती। सीधे अर्थों मे, अगर आज चोरी की सजा तीन साल है, और मैंने ये अपराध आज किया तो मुझे तीन साल की ही सजा दी जा सकती है। अगर सरकार कल को चोरी की सजा बढ़ा कर अगर दस साल कर दे, तो इसका मतलब ये नहीं की जेल में सजा काट रहे चोरों का कारावास भी बढ़ कर 10 साल का हो जाएगा।
क्या अनुच्छेद 20 में निहित, इस मौलिक अधिकार की कसौटी पर, बेनामी कानून खरा साबित हो पाएगा? इतना तो तय है की इस संशोधन के तहत जिनको दंड मिलेगा वो सुप्रीम कोर्ट अपनी गुहार लेकर जरूर जाएंगे।
इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा फैसले क्या कहते हैं? आम तौर पर अगर सरकार कानूनों में कार्यविधि/procedure संबंधी बदलाव पूर्वप्रभाव से लागू करे तो कोई खास अड़चन नहीं आती; बल्कि कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट ऐसे बदलावों को जायज ठहरा चुका है। लेकिन अगर कानूनी संशोधन ऐसी प्रकृति के हों जिनसे नागरिकों के मौलिक अधिकार प्रभावित होते हों? क्या ऐसे संशोधन भी पूर्व प्रभाव से लागू किए जा सकेंगे? ये हम अभी आगे देखेंगे, लेकिन अभी इतना जान लें की बेनामी कानून के नए संशोधन, 1 नवंबर, 2016 से लागू कर दिए गए हैं।
नए कानून में मूलभूत बदलाव
इस बात में तो कोई शक नहीं की बेनामी कानून में जिस प्रकार के संशोधन किए गए हैं, उनको महज प्रक्रियात्मक/कार्यविधि/procedural बदलाव नहीं कहा जा सकता-
नए कानून की धारा 2(9) में बेनामी कानून की परिभाषा पहले से कहीं अधिक विस्तृत बना दी गई है। संपत्ति क्रय-विक्रय के कई ऐसे प्रकार जिनको पहले बेनामी नहीं माना जाता था, अब इसकी परिभाषा में शामिल कर लिया गए हैं। अगर इस कानून को सख्ती से लागू कर दिया गया तो परिणाम भयावह हो सकते हैं। जो पहले अपराध नहीं था, अब अपराध की श्रेणी में ले आया गया है, और सजा का भी प्रावधान है। इस तरह से देखा जाए तो ये संशोधन सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 20 में निहित मौलिक अधिकार का हनन करता दिखाई देता है।
शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने नवंबर 2016 से पहले किए गए अपराधों के लिए कम सजा तय की है। संशोधित कानून की धारा 3(2) मे 2016 से पहले किए गए अपराधों का जिक्र है, और धारा 3(3) में कानून के लागू किए जाने की तिथि, 1 नवंबर 2016, के बाद के अपराधों का। लेकिन अपराध तो अपराध होता है। सजा भले ही कम हो, लेकिन ऐसे लोगों को भी मिल सकती है जिन्होंने 1988 से 2016 के बीच ये जान कर संपत्ति खरीदी की उन्हें मौजूदा कानून के तहत सजा नहीं हो सकती। इसलिए 2016 के पहले और बाद के अपराधों मे फर्क कर देने भर से ये कानून संविधान के अनुच्छेद 20 के दायरे से बाहर नहीं हो जाता।
उच्च न्यायालयों की व्याख्या
जैसे की उम्मीद दी, 2016 से अब तक, अलग-अलग राज्यों के High Courts में इस कानून से संबंधित कई मामले दायर किए गए है। तकरीबन सभी मामलों मे अलग-अलग High Courts की राय यही रही है की संशोधित कानून केवल 2016 के बाद के मामलों पर लागू किया जा सकता है।
Josheph Ishrat v Rozy Nishikant Gaikwad,2017, में Bombay High Court ने कहा की जिस प्रकार के विस्तृत बदलाव नए कानून में किए गए हैं उनको महज कार्यविधि संबंधी परिवर्तन नहीं माना जा सकता।
Mangathai Ammal V Rajeshwar, 2019, में Supreme Court ने संशोधित कानून की खामियों को समझाते हुए कहा की पुराने कानून की धारा 3 में पत्नी या बच्चों के नाम से संपत्ति खरीद को बेनामी नहीं माना गया था, लेकिन संशोधित कानून में ऐसी खरीद को भी बेनामी के दायरे में लाया गया है। पूर्व में जो कानूनन सही था, अब अपराध बन चुका है। संविधान ये इजाजत नहीं देता की किसी के पूर्व के वैध कृत्यों को बाद में अपराध घोषित कर उसे सजा दी जाए। इसलिए ये कानून केवल 2016 के बाद अपराध करने वालों को दंडित कर सकेगा। तकरीबन ऐसी ही टिप्पणी 2019 के case Niharika Jain v Union of India में राजस्थान High Court ने की।
निष्कर्ष, में ये कहा जा सकता है की न्यायालयों ने वही बात दोहरा दी है जो कानूनविद और जानकार 2016 के संशोधन के बाद कह रहे थे- नए कानून में कई ऐसे मूलभूत बदलाव किए गए हैं जिनका प्रभाव अपराध की परिभाषा और दंड दोनों पर पड़ेगा। ऐसे में, और खासकर अदालतों के अभी तक के रवैये को देखते हुए, यही लगता है की बेनामी खरीद-फरोख्त की नई परिभाषा के अनुरूप सजा 2016 के बाद के मामलों मे ही मिलने वाली है।
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